उद्धरेदात्मनाऽत्मानम् | स्वयं का उद्धार

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स्वयं का उद्धार - उद्धरेदात्मनाऽत्मानम्

उद्धरेदात्मनाऽत्मानम् : मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र भी हे और स्वयं ही अपना शत्रु भी हे | मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे गिरने न दे | यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी |

उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।

मनुष्य को अपने द्वारा अपना(स्वयं का) उद्धरेदात्मनाऽत्मानम् उद्धार करना चाहिये और अपना(स्वयं का ) अधःपतन नहीं करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु भी है।

कहानी :स्वयं का उद्धार – उद्धरेदात्मनाऽत्मानम्
शैली :आध्यात्मिक कहानी
सूत्र :पुराण
मूल भाषा :हिंदी

(जो कोई दूसरा अनिष्ट करनेवाला बाह्य शत्रु है वह भी अपना ही बनाया हुआ होता है इसलिये आप ही अपना शत्रु है और आप ही अपना मित्र भी हे ) इस प्रकार केवल अपनेको ही शत्रु बतलाना भी ठीक ही है।

स्वयं का उद्धार – उद्धरेदात्मनाऽत्मानम्

अपना उद्धार करना संसार का उद्धार करने का प्रथम चरण है। समाज या संसार कोई अलग वस्तु नहीं, व्यक्तियों का समूह ही समाज या संसार कहलाता है। यदि हम संसार का उद्धार करना और कल्याण करना चाहते हैं तो वह कार्य अपने आप से आरंभ करना चाहिए। क्योंकि हम अपने आप के ही सबसे करीब है।

अपने आप (खुद) उद्धरेदात्मनाऽत्मानम् को सुधारना सबसे अधिक सरल एवं संभव हो सकता है। दूसरे लोग को संभालना हमारे बस में नहीं हे

दूसरे लोग कहना मानें या न मानें, बताये हुए रास्ते पर चलें या न चलें ये उनका निर्णय हे, किन्तु हमारे ऊपर तो हमारा संपूर्ण नियंत्रण हे | इसीलिए विश्वकल्याण का कार्य सबसे प्रथम आत्मकल्याण का कार्य हाथ लेते हुए ही आरंभ करना चाहिए।

अपनी सच्ची सेवा भी विश्वसेवा का ही एक अंग मानी जा सकता है। क्योकि हम भी संसार का एक अंश है। अपना जितना ही सुधार हम कर लेते है उतने ही अंशों में संसार सुधर जाता है। इसलिए अपनी सेवा भी संसार की ही सेवा हैं। अपनी सच्ची सेवा भी विश्वसेवा का ही एक अंग मानी जा सकती है। संकुचित भौतिक स्वार्थों की इसीलिए ऋषियों ने निंदा की है कि उनमें ग्रस्त होकर मनुष्य अपने धर्म कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने लगता है।

सिकंदर की कहानी – स्वयं का उद्धार

इसके लिए हम सिकंदर और दायो जिनीस का दृष्टांत देखते हे एक संत उनका नाम था दायो जिनीस, उन्होंने देखा की सिकंदर आ रहा है | तो वो संत जान बुजकर पतली गली में लेट गए और रास्ता बंद हो गया | अब सिकंदर वह से गुजर रहा था तो वो मिल गए | मंत्री ने बताया की वो एक संत है और रास्ता बंद करके लेट गये हे |

एक संत उनका नाम था दायो जिनीस, उन्होंने देखा की सिकंदर आ रहा है | तो वो संत जान बुजकर पतली गली में लेट गए और रास्ता बंद हो गया | अब सिकंदर वह से गुजर रहा था तो वो मिल गए | मंत्री ने बताया की वो एक संत है और रास्ता बंद करके लेट गये हे |

तब महान सिकंदर बोला विश्व विजय करने आया और हमारे कौन रोक के बैठा हे चलो मैं खुद ही देखता हूँ | संत (दायो जिनीस) को देखते ही सिकंदर ठंडा हो गया, की ये आदमी इतना प्रसन्न होकर धरती पे पड़ा है, न सेना है न राज है, न हुकुमत है और चेहरे पर इतनी शांति और ख़ुशी कैसे |

सिकंदर ने पूछा की तुम कौन हो? जो रास्ता रोक के बैठे हो ?

तब संत ने सिकंदर से पूछा तुम कौन हो?

सिकंदर ने बताया में महान सिकंदर हु विश्व विजय करने को निकला हूँ |

अब वो संत हसने लगे उनकी हंसी में बड़ा आध्यात्मिक व्यंग था लेकिन हंसी भी बड़ी प्यारी थी | संत की हंसी तो संत ही जाने |

संत बोले विजय ! आजतक कोई कर सका है क्या ? विश्व पर कोई विजय होती है ?

विजय जब भी होगी अपनेपर होगी, कैसे आदमी हो अपने आप पर विजय पाओ विश्व की विजय पा कर क्या करोगे ?

विश्व विजय कभी भी नहीं होता है | अपने आप(स्वयं) पर देखो कितनी ख़ुशी है कितनी व्यापकता है |अपना आप(स्वयं) इतना विजयी है की महाप्रलय भी उसको कुछ नहीं कर सकता देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते ऐसा होता हे अपना आप (स्वयं) पर विजय |

सिकंदर ने उत्तर दिया बाते तो तुम्हारी अच्छी लगती है, मुझे पसंद भी है लेकिन मैं जरा विश्व विजय करके फिर आता हूँ तुम्हारे पास |

संत बोले फिर नहीं आ सकोगे, विश्व विजय नहीं होता है अभी जगा है मेरे पास में यहाँ बैठो और अपने उपर (स्वयं) उद्धरेदात्मनाऽत्मानम् पर विजय पा लो |

सिकंदर बोले अपने पर विजय पाना है तो जरुरी लेकिन अभी जाने दो बाद में आऊंगा |

संत बोले जाते तो जाओ लेकिन वापिस आ नहीं पाओगे और हुआ वही सिकंदर आ भी नहीं सका और रास्ते में ही मर गया |

क्या रावण विश्वपर विजय क्र सके ? नहीं क्या हिरन्यकश्यपु पा सका ?

लेकिन उधर शबरी ने भिलन होकर भी अपने मन और अपने आप (स्वयं) उद्धरेदात्मनाऽत्मानम् पर विजय पा लिया और बस गुरु के ज्ञान में लग गयी |

अपने आप (स्वयं) पर विजय पाना आसन है , विश्व पर विजय पाना असंभव है |

उद्धरेदात्मनाऽत्मानम् कहानी से सीख:

क्रोधी मनुष्य को आक्रमण करने का अवसर उसी पर मिलता है जो स्वयं भी क्रोधी हो। क्रोध से क्रोध बढ़ता है और उसकी क्रिया−प्रतिक्रिया द्वन्द्वयुद्ध का रूप धारण कर लेती है। यदि एक व्यक्ति नम्र, सहनशील, हंस-मुख, क्षमाशील और दूरदर्शी हो तो क्रोधी स्वभाव का मनुष्य भी उसे उत्तेजित नहीं कर पाता।

वह अपनी नम्रता और सज्जनता से उसे शान्त कर देता है और क्रोध का जो मूल कारण था उसके समाधान का भी उपाय सोच लेता है। इसके विपरीत यदि दोनों ही क्रोधी हुए तो कोई बड़ा कारण न होते हुए भी केवल शब्दों की उच्छृंखलता लेकर परस्पर लड़ मरते हैं और मित्रता शत्रुता में बदल जाती है।

अंतिम बात :

दोस्तों कमेंट के माध्यम से यह बताएं कि “स्वयं का उद्धार – उद्धरेदात्मनाऽत्मानम्” वाला यह आर्टिकल आपको कैसा लगा | हमने पूरी कोशिष की हे आपको सही जानकारी मिल सके| आप सभी से निवेदन हे की अगर आपको हमारी पोस्ट के माध्यम से सही जानकारी मिले तो अपने जीवन में आवशयक बदलाव जरूर करे फिर भी अगर कुछ क्षति दिखे तो हमारे लिए छोड़ दे और हमे कमेंट करके जरूर बताइए ताकि हम आवश्यक बदलाव कर सके | 

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